परमाराध्य सन्त सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के हृदयस्वरूप बाबा श्रीशाही स्वामीजी महाराज का यह प्रवचन मास-ध्यान-साधना शिविर, महर्षि मेँहीँ धाम, मणियारपुर, बाँका में दिनांक १६.१.२००६ ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
प्रेषक-गुणसागर दास
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मंगल मूरति सतगुरू, मिलवैं सर्वाधार ।
मंगलमय मंगल करण, विनवौं बारम्बार ॥
ज्ञान-उदधि अरु ज्ञान-घन, सतगुरु शंकर रूप ।
नमो-नमो बहु बार हीं, सकल सुपूज्यन भूप ॥
उपस्थित धर्मानुरागी साधकवृंद, सत्संगप्रेमी, माताओ एवं बहनो!
इस सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। आवश्यकता क्या है ? आवश्यकता ही उद्योग की जननी है। अगर आवश्यकता नहीं जाने तो फिर काम को करे ही क्यों ? संत कबीर साहब के वचन में है-
भक्ति बिन नहीं निस्तरै ।
निस्तार पाना चाहते हैं, उद्धार पाना चाहते हैं, अपना परम कल्याण पाना चाहते हैं, तो इसके लिए ईश्वर की भक्ति करनी पडेगी ।
तब लगि कुसल न जीव कहँ, सपनेहुँ मन विश्राम ।
जब लगि भजत न राम कहँ, सोक धाम तजि काम ॥
जबतक राम का भजन नहीं करेंगे, तो जीव को सपने में भी विश्राम, चैन नहीं है।
"राकापति षोड़स उअहिं, तारागन समुदाइ ।
सकल गिरिन्ह दव लाइय, बिनु रवि राति न जाइ ।।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा ।
मिटहिं न जीवन केर कलेसा ।। "
एक चन्द्रमा कौन कहे, सोलह पूर्णिमा के चन्द्रमा उग जायँ; आकाश में जितने तारे हैं, सभी उदित हो जायँ; जितने पहाड़ हैं-पहाड़ कम नहीं हैं, देखिये हिमालय में कितने पहाड़ हैं, दक्षिण भारत में खाली पहाड़-ही-पहाड़ है सबमें आग लगा दी जाय, प्रकाश कम नहीं होगा। फिर भी इतना प्रकाश होने के बावजूद रात रहेगी। रात का जाना तब होगा, जब सूर्य का उदय होगा। ऐसा ही समझिये अपने कल्याण के लिए। तमाम साधन कर लीजिये, लेकिन जब तक ईश्वर-भक्ति रूपी सूर्य का उदय नहीं होगा, आपका कल्याण नहीं होगा। ईश्वर-भक्ति में सबसे पहली बात है- ईश्वर या परमात्मा के होने में विश्वास।
जाने बिनु न होइ परतीती ।
बिनु परतीती होइ नहिं प्रीती ॥
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई ॥
(गो० तुलसीदास, रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड)
जानोगे नहीं तो होने में विश्वास नहीं होगा। विश्वास नहीं होगा, तो प्रेम नहीं होगा, जब प्रेम ही नहीं होगा तो भक्ति कैसे होगी?
प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज डिम्भ विचार।
उद्र भरन के कारने, जनम गँवायो सार ॥
ईश्वर के होने में विश्वास होना चाहिए कि ईश्वर है। कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर नाम की कोई चीज है नहीं, लेकिन यह बात मन में बैठती नहीं है, इसलिए कि इसकी खोज बहुत पुराने जमाने से है। इसकी खोज में बहुत पुराने विचार के लोग लगे हुए हैं। वह नहीं है, यह कहते नहीं बनता। उसका होना निश्चित है। वह भुलाये नहीं भूलता, बार-बार याद आता है और इतना आवश्यक है कि उसके बिना काम नहीं चलता है। लोग कठिन-से-कठिन परिस्थिति में पड़ जाते हैं, अगर वह नहीं है तो लोग किसके बल पर अपने साहस को बनाये रख पाते हैं। हमारे परमाराध्य कभी-कभी एक कहानी कहते थे-किसी जमाने में यूनान का कोई बादशाह बीमार पड़ा। उसकी चिकित्सा में अच्छे-अच्छे वैद्य हकीम लगे, फिर भी बीमारी घटने के बजाय बढ़ती ही जाती थी। हकीमों को, वैद्यों को चिन्ता हुई। आखिर क्या होना चाहिए । बादशाह सलामत दिन-प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे हैं। सबों ने विचार किया-अगर इस तरह का कोई आदमी मिल जाय, इस रूप-रंग का, इस शील स्वभाव का, इस उम्र का-उसके पिञ्चाशय अर्थात् कलेजे से वह दवा बनायी जा सकती है, जिससे बादशाह सलामत चंगे हो जायेंगे। सबों ने जाकर बादशाह को सुनाया। बादशाह ही था, आदेश कर दिया कर्मचारियों को–'खोजो इस तरह के आदमी को ।' बहुत लोग निकले खोजने । संयोग से एक लड़का मिल गया, जो बहुत गरीब था। उसके माता-पिता को बहुत-सा धन देकर खरीद लिया और बादशाह के सामने ले जाकर हाजिर किया। बादशाह ने वैद्यों-हकीमों को बुलाकर पूछा- 'इससे काम चलेगा?' कहा-'ठीक है, इससे काम चल जाएगा।' तब उन्होंने काजी को बुलाया । काजी कहते हैं न्यायाधीश को, जज को। कहा- 'इसके कलेजे से मेरी दवा बनेगी, इसलिए इसको मारना पड़ेगा, कत्ल करना पड़ेगा, तो इसमें आप क्या न्याय देते हैं ?' काजी ने कह दिया- 'मुल्क के बादशाह के जीवन की रक्षा के लिए यदि एक-दो रियायत की जान ली जाय, तो कोई गुनाह नहीं है।' दे दिया न्याय । जल्लाद को आदेश दे दिया कि इसको मारो। जल्लाद की तलवार उठ गई। जैसे ही जल्लाद की तलवार उठी, लड़का आकाश की तरफ देखकर हँस दिया। बादशाह देख रहा था। इशारे से जल्लाद को रोका, तब लड़के से पूछा- 'ऐ लड़के ! तुम इस कठिन-से-कठिन मुसीबत काल में हँसे, इसके अन्दर क्या रहस्य है ?' लड़के ने कहा- 'बादशाह सलामतः! इसके अन्दर बहुत बड़ा रहस्य है।' कहा-'वह क्या?' लड़के ने कहा- 'देखिये, संसार में सबसे पहले कोई सहारा है तो माता-पिता। माता-पिता अपने बच्चे के लिए क्या नहीं करते हैं ! जब से बच्चा पैदा होता है, तब से माता-पिता को चिंता हो जाती है कि किस तरह से सुखी-सम्पन्न, धनवान-यशवान्-विद्वान् आदि होकर रहेगा। सो हमारे माता-पिता ने धन के लोभ में कत्ल करने के लिए मुझको बेच दिया। दूसरा सहारा होता है न्यायाधीश का। जब अपना वश नहीं चलता तो लोग कोर्ट-कचहरी की शरण लेते हैं। तो आपके न्यायाधीश ने मुझे कत्ल करने का फैसला सुना दिया, जबकि मैंने कोई गलती नहीं की, कोई अपराध नहीं किया। अंतिम सहारा होता है देश के मालिक का । जब सब तरफ से लोग हार जाते हैं तो देश के मालिक के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं। सो आप मेरे पिता के समान हैं। मैं आपकी संतान के समान हूँ। आप अपने सामने अपने जीवन की रक्षा के लिए मुझे कत्ल करवाने जा रहे हैं, तो मैं ऐसी निसहाय अवस्था में आ गया हूँ। इसलिए यह सोचकर मैंने दीन-दुनिया के मालिक की तरफ देखकर कहा- 'प्रभु ! संसार की लीला देख ली, अब तेरी लीला देखनी है कि जल्लाद की तलवार का तू क्या करता है।' कहना था कि बादशाह का हृदय पिघल गया, वह सिंहासन से उठा और लड़के को छाती से लगाकर बोला-'बेटे! तू मुझे क्षमा कर दे। अब तेरे ऊपर जल्लाद की तलवार नहीं उठेगी।'
तो इस तरह मुसीबत में पड़कर ऐसा साहस बनाये रखते हैं, अगर वह (ईश्वर) नहीं है, तो किसके बल पर! बहुत लोग कहते हैं कि हम कहाँ देखते हैं? देखते तो बहुत कुछ नहीं हैं। कितने तो माता के गर्भ में थे, तभी उनके पिता चल बसे । उस लड़के ने पिता को नहीं देखा तो क्या कहेगा कि हम बिना पिता के हैं? कहने का मतलब क्या है कि ईश्वर परमात्मा नहीं होता तो कहीं कुछ नहीं होता। हरएक जानता है कि कर्ता के बिना क्रिया नहीं होती। यहाँ जो इतने लोग बैठे हैं, यह सत्संग-हॉल बिना बनाये बन गया है। यह घर बिना बनाये बन गया है। जब यह हॉल बिना बनाये नहीं बन सकता है, यह घर बिना बनाये नहीं बन सकता है, तो इतना बड़ा संसार बिना बनाये कैसे बन गया है? अगर कोई कहे कि यह संसार सदा से है ही, तो उसमें परिवर्तन कैसे होता है ? इसी संसार में ठंढ का मौसम है, गर्मी का मौसम है, फिर बरसात का मौसम है; छः ऋतुएँ हैं; कभी दिन है तो कभी रात है-ये तमाम परिवर्तन कैसे हो जाते हैं? जिसका परिवर्तन होता है, उसका विनाश होता है। हम-आपका शरीर सदा से ऐसा ही है? किसी दिन बच्चा था, सयाना हुआ अब बूढ़ा हो गया। अब क्या होगा? जिसका परिवर्तन होता है, उसका विनाश होता है। विनाश उसका होता है, जिसकी उत्पत्ति होती है। उत्पत्ति नहीं तो विनाश कैसे? संसार में परिवर्तन हमलोग प्रत्यक्ष देख रहे हैं। इसका विनाश होगा, जितने धर्मग्रंथ हैं, सबों में लिखा हुआ है कि ईश्वर है। ईश्वर सबसे पहले का है। तब यह संसार बना है और उसी के द्वारा चल रहा है। कहने का मतलब ईश्वर या परमात्मा के होने में विश्वास चाहिए । अब बात रही कि वह ईश्वर या परमात्मा जो है, कैसा है? आपके धर्मग्रंथों में बहुत-से नाम-रूपों में बताया गया है, लेकिन बहुत-से नाम-रूपों में बतलाकर यह नहीं कहा गया है कि वह बहुत है। उसके बहुत-से नामरूपों में वह एक है कौन, यह जानना अवश्यक है। अगर कोई सोचता है, केवल नाम-रूप के ज्ञान से काम चल जाएगा तो आजतक काम नहीं चला है। अगर अबतक काम नहीं चला है, तो आगे भी काम नहीं चलेगा। भगवान् राम के पिता होने का सौभाग्य राजा दशरथ को हुआ, तो क्या हुआ? भगवान् राम को वनवास हो गया, उनके विरह में दशरथ ने अपने शरीर का परित्याग कर दिया।
राजा दशरथ शरीर छोड़ने के बाद सुरधाम चले गये। अगर स्वर्ग गये तो क्या हुआ ? जबकि भगवान् राम ने स्वयं कहा है- स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।
स्वर्ग में जो सुख है, वह स्वल्प अर्थात् थोड़ा और अन्त में दु:ख लगा हुआ है। पाण्डव लोग भगवान् कृष्ण के बहुत ऊँचे दर्जे के भक्त थे। उन पाण्डवों की अंतिम गति क्या हुई ? महाभारत पढ़कर देखिये, नरक हुआ और नरक के बाद स्वर्ग मिला। स्वर्ग आये तो क्या हुआ? जबकि श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है- स्वर्ग में जानेवाला तभी तक वहाँ रहता है, जबतक उसके पुण्य की पूँजी रहती है। पूँजी समाप्त हो जाती है तो संसार की योनियों में चक्कर लगाना पड़ता है। कहने का मतलब राजा दशरथ को स्वर्ग हुआ या पाण्डवों को ही स्वर्ग हुआ, तो क्या हुआ! इसलिए परमात्मा के सच्चे स्वरूप के ज्ञान को जानिये । ऐसे तो परमात्मा को सगुण-साकार रूप में बतलाया गया है और निर्गुण-निराकार रूप में बतलाया गया है। लेकिन न ही परमात्मा सगुण-साकार हैं, न ही निर्गुण-निराकार हैं । हमलोग रोज गाते हैं- 'निर्गुण सगुण के पार में'। ये दोनों संज्ञाएँ जो हैं, क्या हैं? जो गुण के साथ है, वह सगुण है। जो आकार के साथ है, वह साकार है। जो गुण को छोड़कर है, वह निर्गुण है, जिसने आकार को छोड़ दिया है, वह निराकार है। तो वह है क्या? वही है परमात्मा जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर-सर्वाधार मानना चाहिये-ऐसा जो है, वही परमात्मा है। ऐसे परमात्मा को प्राप्त करना है। ऐसा परमात्मा हम- आपके सब तरफ है ही, "
अन्दर में है ही, तो प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है, इसलिए कि उसकी पहचान नहीं है। आपके सामने कोई बहुमूल्य चीज है, हीरा है, पारस है, आप नहीं पहचान रहे हैं, आपके लिए वह कंकड़-पत्थर के समान है। निधि तो उसके लिए है जिसको उसकी पहचान है। गो० तुलसीदासजी महाराज लिखते हैं-
करतल गत न परहि पहिचाने।
विश्वास कीजिये, परमात्मा सबको हथेली में प्राप्त है। जो चीज जितनी आवश्यक है, वह चीज़ उतनी ही सुलभ है। आपको आवश्यकता है अन्न की, अन्न से ज्यादा आवश्यकता है जल की । अन्न के बिना जितनी देर रह सकते हैं, उतनी देर जल के बिना नहीं रह सकते हैं। अन्न के लिए जितना प्रयास करना पड़ता है, जल के लिए उतना प्रयास नहीं करना पड़ता। जल से भी ज्यादा आवश्यक है गर्मी। जल के लिए तो कुआँ खुदवाना, चापाकल गड़वाना पड़ता है, लेकिन गर्मी के लिए उतना प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
थोड़ा-सा आप भीतर से बाहर चले जाइये, आपको सूरज की गर्मी मिल जाएगी और उससे भी ज्यादा आवश्यक है हवा । हवा के बिना तो आप एक क्षण भी नहीं रह सकते हैं। गर्मी के लिए तो आपको घर से बाहर भी निकलना पड़ता है, हवा के लिए तो जहाँ हैं, वहीं हवा लेते रहिये ।
परमात्मा सबसे ज्यादा आवश्यक हैं, इसलिए परमात्मा सबसे ज्यादा सुलभ हैं सिर्फ जान लेने की बात है, पहचान लेने की बात है- 'करतल गत न परहि पहिचाने।'
परमात्मा हथेली में है, लेकिन पहचान में नहीं आ रहा है। पहचान में क्यों नहीं आ रहा है ? ज्ञान करने के लिए हम-आपको परमात्मा ने आँख, नाक, कान, जिह्वा, त्वचा पाँच इन्द्रियाँ दी हैं। इन पाँच इन्द्रियों के माध्यम से हम ज्ञान करते हैं। त्वचा इन्द्रिय-संबंधी ज्ञान, मायाज्ञान होता है, क्यों ? ये हमारा शरीर और इन्द्रियाँ जो हैं, माया के मसाले से बनी हैं। इनके माध्यम से हमारी इन्द्रियों को ज्ञान नहीं होता है, ज्ञान होता है जीवात्मा को ही । इन्द्रियों से जो ज्ञान करते हैं, इन्द्रिय-संबंधी ज्ञान हो जाता है। उसी तरह से जिस तरह से आप चश्मा लगाकर देखते हैं। चश्मा नहीं देखता है, आँख देखती है। कैसा देखते हैं? जैसा चश्मे का रंग है, गुण है। यथार्थ कब देखेंगे, जब चश्मे को उतार कर देखेंगे। उसी तरह से इन्द्रियाँ शरीर के साथ-साथ जब ज्ञान करेंगे, वह इन्द्रिय-ज्ञान होगा, माया-ज्ञान होगा; परमात्मा का ज्ञान नहीं होगा। परमात्मा का ज्ञान करने के लिए आपको अपने से ज्ञान करना होगा। अपने का ज्ञान होता क्यों नहीं? इसलिए कि पहले अपने का ही ज्ञान नहीं है, जबतक अपने का ज्ञान नहीं होगा, तो परमात्मा का ज्ञान कैसे होगा? जैसे अपने शरीर का ज्ञान है तो दूसरे के शरीर का ज्ञान कर रहे हैं, संसार का ज्ञान कर रहे हैं। अगर सोये होते तो अपने ही शरीर का ज्ञान नहीं होता कि यहाँ कौन सब आये, क्या सब हुआ ! जिस तरह अपने शरीर के ज्ञान में रहने के कारण तमाम शरीर का ज्ञान हो रहा है। हमारा शरीर पाँच तत्त्व का बना हुआ है, सबका शरीर पाँच तत्त्व का बना हुआ है, सारा संसार पाँच तत्त्व का बना हुआ है। उसी तरह से , हम अपने आपके ज्ञान में हो जायेंगे, हम क्या हैं? जो परमात्मा है, वहीं हम हैं- 'ईश्वर अंस जीव अविनासी', इसलिए अपने आपका ज्ञान कैसे होगा? अपने आपका ज्ञान करने के लिए अपनी ज्ञानमयी धारा को अपनी तरफ करना पड़ेगा। जैसे आप अपने शरीर की तरफ देखना चाहते हैं, तो अपनी दृष्टि को अपने शरीर की तरफ करते हैं, तो अपने शरीर को देखते हैं। तो दृष्टि को अपनी तरफ समेटिये । आँख में जो देखने की शक्ति है, उसी का नाम है दृष्टि । इसलिए अपनी आँख को बन्द कीजिये। आँख बन्द करने के बाद क्या देखते हैं ? हरएक आँख बन्द करने के बाद अंधकार देखता है। हमलोगों के अन्दर केवल अंधकार ही होता, तो आँख में रोशनी कैसे होती, मुँह में बोली कैसे होती? हम आपके अन्दर प्रकाश भी है, शब्द भी है। यही तीन पर्दे हैं। जबतक ये तीन पर्दे के अन्दर रहेंगे, इन पर्दों से संबंधित ज्ञान होगा, लेकिन परमात्मा का ज्ञान नहीं होगा। परमात्मा का ज्ञान इन तीन पर्दों के परे होने के बाद होता है। इन तीन पर्दों से परे होने के लिए आपको अपने शरीर में चलना होगा। शरीर में तो रोज ही चलते हैं, लेकिन यह चलना नीचे की तरफ होता है। नीचे की तरफ है अज्ञान की तरफ । इसलिए ऊपर की तरफ चलिये। ऊपर की तरफ चलना ज्ञान की तरफ चलना है। जैसे स्वप्नावस्था से जाग्रतावस्था में चले आये तो पता चल गया कि स्वप्नावस्था वाला ज्ञान कैसा था, उसी तरह से इसके ऊपर चले जाइयेगा तो इस अवस्था का पता चल जाएगा कि इसके परे क्या है। यह ज्ञान जानने में आ जायेगा। इसके परे वही परमात्मा है। इन तीनों अवस्थाओं से ऊपर चले जायेंगे तो वही परमात्मा का ज्ञान होगा। यही ज्ञान अन्तिम ज्ञान है। अन्तिम ज्ञान में अन्तिम सुख होगा, जिस सुख में सारे दु:खों का, सारे क्लेशों का सदा के लिए अन्त हो जाएगा। इसके लिए आपको साधन करना है, वही साधन जो आपलोग कर रहे हैं। वही मानसजप, मानसध्यान, दृष्टिसाधन और नादानुसंधान की क्रिया। इन चार साधनों को करके आप अपने आपके ज्ञान के साथ-साथ परमात्मा का ज्ञान कर लीजिये-"जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।' । यही आपलोगों की सेवा में सुनाया।
बोलिये श्रीसद्गुरु महाराज की जय !
पूज्यपाद बाबा श्रीशाही स्वामीजी महाराज का यह प्रवचन अ० भा० संतमत सत्संग के ६४वाँ वार्षिक महाधिवेशन के शुभ अवसर पर ग्राम-बेलदौर, जिला-खगड़िया (बिहार) में दिनांक ५.३.२००५ ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
प्रेषक- गुणसागर दास
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मंगल मूरति सतगुरू, मिलवैं सर्वाधार ।
मंगलमय मंगल करण, विनवौं बारम्बार ॥
ज्ञान-उदधि अरु ज्ञान-घन, सतगुरु शंकर रूप ।
नमो-नमो बहु बार हीं, सकल सुपूज्यन भूप ॥
उपस्थित धर्मानुरागी सत्संगप्रेमी सदात्माओ, माताओं एवं बहनो!
अभी स्वागत-गान, अभिनन्दन-पत्र के माध्यम से आपलोगों ने जो हमारी प्रशंसा की बातें सुनीं। मेरे जानते तो बातें वैसी ही रहीं, जैसे कोई माई दही बेच रही थी। किसी ने पूछा, माई ! दही कैसा है? कहा, बाबू गुड़ मिलाकर खाओगे तो बढिया लगेगा। दरअसल, मैं कैसा हूँ, मैं ही जानता हूँ; फिर भी आपलोगों ने मेरी - प्रशंसा की बातें कहीं, वह मैं अपने लिए आशीर्वाद समझता हूँ। यह आयोजन जिसमें हम-आप जहाँ-तहाँ से एकत्र हुए हैं, यह अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग का ९४वाँ वार्षिक महाधिवेशन है। इस आयोजन के माध्यम से सन्तों के ज्ञान का प्रचार होता है। सन्त से तात्पर्य, जिनके दु:खों का हो गया है अंत, जिनकी वासनाओं का हो गया है अंत, जिनको माता के गर्भ में नहीं आना है। जिनके बारे में भगवान् राम ने भरतजी को कहा था-
विषय अलम्पट सील गुनाकर ।
पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ।
सम अभूत रिपु बिमद बिरागी ।
लोभामरष हरष भय त्यागी ।
कोमल चित दीनन्ह पर दाया ।
मन बच क्रम मम भगति अमाया ।
सबहिँ मानप्रद आपु अमानी ।
भरत प्रान सम मम तेइ प्रानी ।।
बिगत काम मम नाम परायन ।
सान्ति बिरति बिनती मुदितायन ॥
सीतलता सरलता मयत्री।
द्विज पद प्रीति धरम जनयत्री ॥
ये सब लच्छन बसहिं जासु उर ।
जानेहु तात सन्त सन्तत फुर ॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं ।
परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं ॥
निन्दा अस्तुति उभय सम, ममता मम पद कंज ।।
ते सज्जन मम प्रान प्रिय, गुन मन्दिर सुख पुंज ॥
महोपनिषद् में आया है-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥
जिनके हृदय की गाँठ खुल गई है, जिनके संशय का नाश हो गया है, जिनका कर्मबन्धन समाप्त हो गया है, जिनकी दृष्टि परे-से-परे अर्थात् परमात्मा का दर्शन करती है, वे संत हैं। हृदय की गाँठ खुल गई से तात्पर्य यह है कि हम-आपका जो शरीर है, क्या है ? इसको स्थूल कहते हैं। यह जड़ है, इसमें रहनेवाले हम चेतन हैं। जड़ कहते हैं अज्ञानमय पदार्थ को। चेतन कहते हैं, ज्ञानमय पदार्थ को । हम इसमें ज्ञानमय पदार्थ हैं। किस तरह से हैं, जिस तरह से दूध में घी होता है। दूध में घी जर्रे-जर्रे में, परमाणु-परमाणु में व्यापक होकर रहता है। उसी तरह से हम शरीर में व्यापक होकर हैं। इसीलिए पैर पर चींटी चढ़ जाती है, तो मालूम हो जाता है। सिर पर मक्खी बैठ जाती है तो मालूम हो जाता है। इसलिए कि हम नख से शिख तक भरे हुए हैं। जिन्होंने इस शरीर से अपने को अलग कर लिया, जिस तरह दूध से घी लोग अलग कर लेते हैं, उन्हीं के बारे में कहा गया है- भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
जिन्होंने अपने को अलग कर लिया तो क्या हुआ? जैसे दूध से घी को अलग कर लिया जाता है तो क्या होता है? उस घी से कुछ ऐसा काम होता है जो दूध में रहनेवाले घी से नहीं हो सकता । जैसे पूरी-मिठाई आदि बनाने का काम । उसी तरह से जिन्होंने इस शरीर से अपने को अलग कर लिया, जिस तरह से हमलोग अपने शरीर के वस्त्रों को उतारते-उतारते शरीर को निर्वस्त्र कर देते हैं, उसी तरह वे अपने आपके ज्ञान में रहकर परमात्मा के ज्ञान में होते हैं। यह ज्ञान सबसे ऊँचा ज्ञान, अन्तिम ज्ञान है। इस ज्ञान में जो सुख होता है, फिर दुःख का मुँह नहीं देखना पड़ता है। संशय किसको होता है ? संशय होता है अज्ञानी को। अज्ञानी कौन? जो पढ़ा-लिखा नहीं है? पढ़-लिखकर कोई ज्ञानी नहीं होता। पढ़-लिखकर अगर ज्ञानी हुआ जाता, तो संत कबीर साहब ज्ञानी की कोटि में नहीं आते, इसलिए कि वे पढ़े-लिखे नहीं थे। उनके बारे में कहा गया है -
मसि कागद छुयो नहीं ।
कलम गह्यो नहिं हाथ ॥
ऐसे थे संत कबीर साहब, लेकिन इतने ऊँचे दर्जे के ज्ञानी थे कि उससे ऊँचा ज्ञानी हुआ ही नहीं जाता।
अमित बोध अनीह मित भोगी ।
सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥
ऐसे थे संत कबीर साहब। पढ़-लिखकर अगर ज्ञानी हुआ जाता, तो रामकृष्ण परमहंसजी महाराज ज्ञानी की कोटि में नहीं आते। उनकी जीवनी में मैंने पढ़ा है कि वे केवल अपना नाम किसी तरह लिख पाते थे- गदाधर। योग्यता ऐसी थी, लेकिन इतने ऊँचे दर्जे के ज्ञानी हुए, जिनके शिष्य स्वामी विवेकानन्दजी हुए। स्वामी विवेकानन्दजी महाराज विश्वधर्म सम्मेलन में गये थे अमेरिका के शिकागो में-१८९३ ई० के सितम्बर महीने में । १० सितम्बर से २५ सितम्बर तक विश्वधर्म सम्मेलन हुआ था। उसमें १३३ देशों के अध्यात्म-ज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान् आये थे। सबों ने उनके बारे में कहा था कि विद्वत्ता के परे के विद्वान् हैं। जो स्वामी विवेकानन्दजी महाराज थे, वे श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज के शिष्य कैसे हो गये।
पढ़-लिखकर कोई ज्ञानी नहीं होता। आप देखिये, बहुत पढ़ा है लेकिन झूठ बोलता है, चोरी करता है, डकैती करता है। कितने तरह का दुष्कर्म करता है। ज्ञानी झूठ बोलेगा, ज्ञानी चोरी करेगा, नशा, हिंसा, व्यभिचार ज्ञानी करेगा? हम कहते हैं, आपने अपने खाने के लिए भोजन बनाया है, क्या आप अपने हाथ से उसमें जहर मिलाइयेगा? अगर आप अपने हाथ से जहर मिलाइयेगा, तो आपको ज्ञानी कौन कहेगा? हर एक जानता है कि किये कर्मों का नतीजा होता है, किये का फल होता है।
कर्म दो तरह का होता है- भला भी होता है, बुरा भी होता है। भले कर्म का फल अगर भला होगा तो सुख होगा, बुरे कर्म का फल अगर बुरा होगा तो दु:ख होगा। कोई बुरे कर्म करके अगर दु:ख अर्जित करता है तो उसको ज्ञानी कौन कहेगा? लेकिन वह ऐसा करता है क्यों ? ज्ञान होता है प्रकाश में, अज्ञान होता है अंधकार में । अभी देखिये, सूरज का प्रकाश है। सूरज के प्रकाश में हमलोग ज्ञान कर रहे हैं। जब सूरज का प्रकाश नहीं रहेगा तो ज्ञान करने के लिए बिजली जलाइये, पेट्रोमैक्स जलाइये, लालटेन जलाइये या मोमबत्ती ही जलाइये, अगर ऐसा नहीं करेंगे, तो अंधकार में किस गड्ढे में गिरेंगे, किन चट्टानों से टकरा जायेंगे, क्या ठिकाना है ! कहने का तात्पर्य है, कि ज्ञान होता है प्रकाश में, अज्ञान होता है अंधकार में । अब हम-आप अपने को देखें-शरीर नहीं, शरीर में हैं। शरीर में हैं तो कहाँ हैं? जिसको आप देखना चाहते हैं, अपनी दृष्टि को उसकी तरफ करते हैं। उसी तरह अपने को आप देखना चाहते हैं तो दृष्टि को आप अपनी तरफ कीजिये। अपनी तरफ अर्थात आप तो शरीर के अन्दर में हैं, पहले बाहर का देखना बंद कीजिये अर्थात् अन्दर देखिये । अन्दर क्या देखते हैं ? अंधकार देखते हैं। हरएक आँख बन्द करने के बाद अंधकार ही देखता है । इस अंधकार में हमलोग पड़े हुए हैं। इसी अंधकार में पड़े रहने के कारण राधास्वामीजी महाराज के वचन में है- इस नगरी में तिमिर समाना; भूल भरम हर बार।
'इस' कहते हैं नजदीक की चीज को, 'उस' कहते हैं दूर की चीज को । नजदीक में अंधकार प्रत्यक्ष है। इसी अंधकार में रहने के कारण 'मन जानै सब बात', कौन नहीं जानता कि झूठ नहीं बोलना चाहिए, चोरी नहीं करनी चाहिए, नशा, हिंसा, व्यभिचार नहीं करना चाहिए। इसका नतीजा दु:ख होता है, कौन नहीं जानता ! फिर भी ऐसा करते हैं, क्यों? इसी अंधकार में रहने के कारण।
मन जानै सब बात जानी बूझि अवगुण करै।
आपका घर है, आपने अपने घर में जो भी चीजें रखी हैं, वह अपने आराम के लिए रखी हैं, लेकिन उसी घर में आप प्रवेश करते हैं जब प्रकाश नहीं रहता है, तो उन्हीं आराम की चीजों से-पलंग है, टेबुल है, कुर्सी है-क्या-क्या है, टकरा जाते हैं, दुखी हो जाते हैं। प्रकाश रहता तो ऐसा नहीं होता। कहने का तात्पर्य हमलोग अंधकार में पड़े हुए हैं। लेकिन हम-आपके अन्दर अंधकार ही है, ऐसी बात नहीं है। केवल अंधकार ही होता तो ये आँख में रोशनी कैसे होती? ये चेहरे पर चमक क्यों है, शरीर को छूने से वह गर्म क्यों मालूम होता? स्पष्ट है, हम-आपके अन्दर प्रकाश भी है, शब्द भी है। ये प्रकाश और शब्द किसका है? सन्त कबीर साहब के वचन में है-
घर घर दीपक बरै, लखै नहीं अन्ध है।
लखत लखत लखि पड़ै, कटै जमफन्द है ॥
वह प्रकाश परमात्मा का है जो सबके अन्दर है, लेकिन अभ्यास करते-करते दिखाई पड़ जाएगा तो यम का फन्दा कट जाएगा। सूरज का प्रकाश हो गया, रात के अंधकार का दुःख चला गया, वह प्रकाश अगर मिल जाएगा तो सारे क्लेशों तथा दु:खों का अन्त हो जाएगा। वह कैसा प्रकाश है ? जिन्होंने अपने को अंधकार से उठाकर प्रकाश में पहुँचा दिया है, उन्हीं के बारे में कहा गया कि उनके संशय का नाश हो गया। संशय चला गया तो दु:ख चला गया। जिनका कर्म-बंधन समाप्त हो गया, कर्म-बंधन कब तक? जबतक कर्ममण्डल में ये हमारा-आपका शरीर है। आँख के नीचे पिण्ड कहलाता है और आँख के ऊपर ब्रह्माण्ड कहलाता है। आँख के नीचे ही सारी इन्द्रियाँ हैं। देखिये, आँख, कान, नाक, मुँह, जिह्वा जितनी भी इन्द्रियाँ हैं, इन्हीं इन्द्रियों से कर्म होता है। जबतक कर्ममण्डल में रहते हैं, तो कर्म-बंधन में रहते हैं और बंधन दु:खदायी होता ही है। अभी आपलोग इतनी संख्या में यहाँ बैठे हुए हैं- एक भी आदमी यह कहनेवाले हैं कि मुझे कोई दु:ख नहीं है। दैहिक, दैविक, भौतिक दु:ख से सबलोग दुखी हैं। जिन्होंने इस कर्ममण्डल से अपने शरीर को ऊपर उठा लिया, वे दु:ख से छूट गये। जैसे आप भारत देश में रहेंगे तो भारत देश के विधान में आपको रहना पड़ेगा। भारत के विधान से बचना चाहते हैं, तो आप भारत देश को छोड़ दीजिए।
स्वामी दयानन्द सरस्वती राजस्थान में प्रचार कर रहे थे। उनके विरोधियों ने (विरोधी तो सबके हुए हैं, भगवान् राम के विरोधी हो गये, भगवान् कृष्ण के विरोधी हो गये, दयानन्द सरस्वती के विरोधी हो गये तो कौन-सी बड़ी बात हुई !) उनका भोजन बनानेवाले को फुसलाकर बहुत बारीक पिसा हुआ काँच दूध में मिलाकर पिलवा दिया। जब पी गये तो उनको मालूम हो गया। उन्होंने भोजन बनानेवाले को बुलाया और कहा, 'देखो जी, तुमने बहुत बड़ी गलती कर दी। अब हम बचेंगे नहीं। देखो, तुम एक काम करो। यहाँ से भाग जाओ । यहाँ हमारे परिचय के बहुत लोग रहते हैं, वे तुम्हें बहुत दु:ख देंगे। पुलिस भी तुम्हें बहुत मारेगी। मैं जानता हूँ कि तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं, लो, मैं देता हूँ।' अपने पास से उन्होंने पैंतीस रुपये दिये और कहा तुम नेपाल चले जाओ। देखिये, संतों का हृदय कैसा होता है ! अपने प्राणहर्ता के लिए भी उनका किस तरह का विचार है !
जल्लाद ने मंसूर का हाथ-पैर काट लिया, जब जिह्वा काटने लगा तब उन्होंने कहा, 'ठहरो, प्रार्थना करने दो, इबादत करने दो।" कहते हैं- "या खुदा! तुम मेरे इस प्राणहर्ता को क्षमा कर देना । ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। ये अबोध आपके बच्चे हैं। आप इनको क्षमा नहीं करेंगे तो कौन करेगा। अगर हमारे ऊपर आपकी मेहर है, तो इनको सद्बुद्धि देना ।' कहने का तात्पर्य कि संतों का हृदय कैसा विशाल होता है !
कहने का मतलब जबतक कर्ममण्डल में रहेंगे, तबतक कर्मबंधन में रहेंगे और कर्म का बंधन जो होता है, वह बड़ा दु:खदायी होता है। जिन्होंने कर्ममण्डल से अपने को ऊपर उठा लिया अर्थात् पिण्ड से ब्रह्माण्ड में पहुँचा दिया। उन्हीं के बारे में कहा जाता है कि उनकी जो दृष्टि होती है परे-से-परे अर्थात् परमात्मा का दर्शन करती है। ऐसे जो हैं, संत हैं। ये ऊँचे परिवार में भी हुए हैं, निम्न परिवार में भी हुए हैं, पढ़े-लिखे भी हुए हैं, अनपढ़ भी हुए हैं, धनी भी हुए हैं, गरीब भी, अपने देश में भी हुए हैं और अन्य देशों में भी। हम जैसे साधु के वेश में भी हुए हैं और आप-जैसे सद्गृहस्थों के वेश में भी हुए हैं। ऐसे संतों का जो ज्ञान है, वह है सन्तमत। सन्तमत ऐसे ही सन्तों के विचारों का प्रचार है । आवश्यकता क्या है ? आवश्यकता ही उद्योग की जननी होती है। अगर आवश्यकता नहीं समझें तो किसी भी काम को करें ही क्यों। हमारे परमाराध्य श्रीसद्गुरु महाराज के वचन में है—
सन्तमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान ।
जो चाहो उद्धार को, बनो संत संतान ॥
(महर्षि मेँहीँ परमहंसजी)
आये हैं सो जायेंगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जात जंजीर ॥
... (सन्त कबीर साहब)
कान खोलकर सुन लीजिये, जाना सबको है। जायेंगे तो कहाँ जायेंगे? "एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जात जंजीर'-एक अच्छाई से अच्छाई में गये, एक बुराई से बुराई में गये । आप संतों का विचार सुनियेगा, संतों के मत में रहियेगा तो आप बुराई में नहीं, अच्छाई में जाइयेगा । दु:ख में नहीं, सुख में जाइयेगा, अधोगति में नहीं, ऊँचे लोक में जाइयेगा। आपको संतों के विचार को सुनना है। सुनना होता है करने के लिए, करना होता है, पाने के लिए । पाने की जननी है करना और करने की जननी है सुनना । सुनोगे नहीं तो करोगे क्या? करेंगे नहीं तो मिलेगा क्या? अब विचारणीय बात है कि हरएक पाना क्या चाहता है ? ऐसे तो इच्छा का अंत है नहीं। तुलसी साहब के वचन में है-'एक दिल लाखों तमन्ना' कितनी इच्छाएँ हैं ठिकाना नहीं। संत कबीर साहब के वचन में है-जिस तरह समुद्र में तरंगें उठती हैं, वैसे ही मन में इच्छा की तरंगें उठती हैं। समुद्र बहुत बड़ा होता है। भौगोलिक ज्ञान रखनेवाले जानते हैं कि एक हिस्सा थल और तीन हिस्सा जल है। धरती जितनी बड़ी है उससे तीन गुणा बड़ा समुद्र है। बहुत तरंगें उठती हैं, लेकिन मन में इच्छा की जो तरंगें उठती हैं, उसके सामने समुद्र की तरंगें कुछ भी नहीं हैं।
समुद्र लहर तो थोड़िया, मन लहरे घनराय ।
केते आय समाइया, केते जाय बिसराय ॥
हमलोगों के मन में सुबह से कितनी इच्छाएँ उठीं, ठिकाना नहीं। कुछ याद है, बहुत नहीं भी याद है। ताँता लगा हुआ है। एक इच्छा पूरी भी नहीं हुई कि दूसरी इच्छा तैयार रहती है। इसलिए गो० तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं- काम अछत सुख सपनेहु नाहीं।
जबतक कामना है तबतक तुम संसार में चाहे कुछ भी बनकर रहोगे, लेकिन दु:ख में ही रहोगे, तुम सुखी नहीं हो सकते । सुखी तुम तभी हो सकते हो, जब तुम्हारी इच्छाओं का नाश हो जाय, कामनाओं का अन्त हो जाय-यह कैसे होगा? गो० तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि राम भजन करो, तब इच्छाओं का नाश होगा।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा।
राम के भजन के बिना कामनाओं का अन्त नहीं होगा। ये तमाम तरह की कामनाएँ उत्पन्न होती हैं किसलिए? आखिर लोग चाहते क्या हैं ? तमाम कामनाओं के अन्दर एक सुख की चाहना है।
सन्त-महात्मा लोग कहते हैं कि राम-भजन करनेवाले को वह सुख मिल जाता है कि जिस सुख को पाकर फिर कामना का उदय नहीं होता है। ईश्वर-भक्ति करने से जो सुख प्राप्त होता है, वह सुख इस जीवन को तो सुखमय बनाकर रखता ही है, इस जीवन के बाद का जो लम्बा जीवन है, उस सारे जीवन को भी सुखमय बना देता है और तब उसके सामने दु:ख नहीं आता है, दु:ख सदा के लिए फरार हो जाता है। जितने सन्त-महात्मा हुए हैं, सबों का यही कहना है कि ईश्वर का भजन करो; क्योंकि आँख का विषय है रूप। आँख को सुख लगता है रूप से। अच्छा रूप मिल गया तो आँख को सुख लगता है। कान का विषय है शब्द । मन के अनुकूल शब्द मिल गया तो कान को सुख लग गया। इसी तरह हमारे पास ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इनके अपने-अपने विषय हैं। जिस इन्द्रिय का जो विषय हैं, उस इन्द्रिय को जब वह मिल जाता है तो सुख लगता है। सन्त-महात्मा लोग कहते हैं कि उसी तरह से जीवात्मा का विषय है परमात्मा, जो भक्ति से प्राप्त होता है। उस जीवात्मा को जब परमात्मा मिल जाता है, तब उसे सुख लगता है; क्योंकि इन्द्रियाँ स्वल्प शक्ति की हैं। इनके जो विषय हैं, वे थोड़े काल के लिए हैं ऐसा गो० तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं। भगवान् राम ने अपनी प्रजा से कहा था कि- स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदायी।
यहाँ के विषय को कौन कहे, स्वर्ग में भी जो विषय का सुख है, वह भी थोडे काल के लिए है। अन्त में दुःख देनेवाले हैं। वह सुख जैसा उसके उपभोग काल में भले ही इन्द्रियों को प्रतीत होता है, लेकिन परिणाम उसका दु:खरूप ही है। इसलिए इन्द्रियों के द्वारा जो सुख लगता है, वह थोड़े काल के लिए होता है,फिर छूट जाता है। संत-महात्मा लोग कहते हैं कि सुखस्वरूप परमात्मा जो है, अनन्त है। यदि तुम उसको प्राप्त कर लो तो ऐसा सुख लगेगा कि कहा नहीं जा सकता है ! सूरदासजी महाराज कहते हैं कि-
कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूंगो गुर खायो ।
तुम महान् हो, भले ही तुम अपने को तुच्छ समझते हो- यह तुम्हारी अपनी इच्छा है। यदि तुम अपने को पहचान लो तो इस दुःखालय (संसार) से सदा के लिए छूटकर निजानन्द में निमग्न हो जाओगे। फिर द्वैत में कभी आना नहीं होगा। कठोपनिषद् में आया है-
अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम् ।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥
इसलिए इन सब बातों को ध्यान से सुनिये और ठीक-ठीक समझिये और समझकर जीवन में थोड़ा-थोड़ा उतारिये भी, तब मनुष्य-जीवन का कल्याण होगा। इसीलिए यह अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का आयोजन किया गया है।
बोलिये श्रीसद्गुरु महाराज की जय !
परमाराध्य सन्त सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के हृदयस्वरूप पूज्यपाद बाबा श्रीशाही स्वामीजी महाराज का यह प्रवचन सन् १९८२ ई० के पूर्व सद्गुरुदेव के जीवनकाल में हुआ था।
-सम्पादक
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मंगल मूरति सतगुरू, मिलवैं सर्वाधार ।
मंगलमय मंगल करण, विनवौं बारम्बार ॥
ज्ञान-उदधि अरु ज्ञान-घन, सतगुरु शंकर रूप ।
नमो-नमो बहु बार हीं, सकल सुपूज्यन भूप ॥
उपस्थित सत्संगप्रेमी महानुभावो, माताओ एवं बहनो!
पहले मैं आपलोगों की सेवा में सन्त कबीर साहब का एक भजन गाकर सुनाता हूँ, फिर उसी के आधार पर कुछ सेवा में निवेदन करूँगा :
गगन की ओट निसाना है।
दहिने सूर चन्द्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है।
तन की कमान सुरत का रोदा, सब्द बान ले ताना है।
मारत बान बिंधा तन ही तन, सतगुरु का परवाना है ।
मार्यो बान घाव नहिं तन में, जिन लागा तिन जाना है।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, जिन जाना तिन माना है।
इस पद्य में सबसे पहली बात 'निशाना' की है। 'निशाना' का अर्थ लक्ष्य, उद्देश्य, प्राप्तव्य आदि है। इस पद्य के द्वारा संत कबीर साहब लक्ष्य ठीक करने की बात कहते हैं। जिसका लक्ष्य ठीक, उसका सबकुछ ठीक और जिसका लक्ष्य गड़बड़ उसका सबकुछ गड़बड़। एक बार गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्य कौरव-पाण्डव राजकुमारों को लेकर जंगल गये। वहाँ अपने शिष्यों की धनुर्विद्या की परीक्षा लेने के लिए एक काठ की चिड़िया बनाकर उसे एक वृक्ष की ऊँची डाल पर रखवा दिया और अपने सभी राजकुमार शिष्यों को उसकी दायीं आँख में निशाना लगाने के लिए कहा और कहा कि जब मैं जिसको वाण चलाने को कहूँ, तब वाण चलाना । जब सभी निशाना बाँधकर तैयार हो गये, तब आचार्य ने सबसे पहले युधिष्ठिरजी महाराज से पूछा, 'कहो जी युधिष्ठिर ! तुम क्या सब देखते हो?' युधिष्ठिर ने कहा-'गुरुदेव ! मैं आपको, भाइयों को, वृक्ष को तथा वृक्ष पर बैठी हुई उस चिड़िया को देखता हूँ।' आचार्य ने कहा-'तुमसे नहीं होगा, तुम हट जाओ।' पुनः आचार्य ने दुर्योधन से पूछा-'दुर्योधन ! तुम्हारा निशाना ठीक है?' दुर्योधन ने कहा-'हाँ, ठीक है।' फिर आचार्य ने पूछा-'यह बताओ कि निशाने के अलावा और क्या सब तुम देखते हो ?' दुर्योधन ने कहा-'यह पूछने की बात है ? सबकुछ देखता हूँ।' आचार्य ने कहा-'तुमसे भी नहीं होगा, तुम भी हट जाओ।' इसी प्रकार आचार्य ने अपने सभी राजकुमार शिष्यों से पूछा और करीब-करीब सबों ने इसी तरह का उत्तर दिया। अन्त में आचार्य ने अर्जुन से पछा-'कहो जी अर्जुन ! तुम्हारा लक्ष्य ठीक है?'. अर्जुन ने कहा-'हाँ गुरुदेव !' फिर पूछा कि तुम क्या सब देखते हो? अर्जुन ने कहा-'डाल पर बैठी चिड़िया को देखता हूँ और कुछ नहीं।' आचार्य ने फिर पूछा-'वह डाल कितनी मोटी है, जिसपर चिड़िया बैठी है?' अर्जुन ने कहा-'गुरुदेव ! अब तो केवल चिड़िया को ही देखता हूँ।' आचार्य ने कहा-'अच्छा यह बताओ कि चिड़िया का रंग कैसा है ?' अर्जुन ने कहा- 'गुरुदेव! अब तो मुझे चिड़िया की केवल वह आँख दिखायी देती है, जिसमें आपने निशाना लगाने के लिए कहा है।' आचार्य ने कहा-'तुम्हारा निशाना ठीक है। अच्छा वाण छोड़ो।' अर्जुन ने वाण छोड़ा और वह वाण चिड़िया की दायीं आँख में जाकर घुस गया । इस उपाख्यान को एक उदाहरण समझिये । जिस प्रकार लक्ष्य ठीक रहने पर अर्जुन का वाण लक्ष्य पर जाकर लग गया, उसी प्रकार जीवन का लक्ष्य ठीक रहने पर ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इसलिए इस पद्य के द्वारा सन्त कबीर साहब कहते हैं कि पहले लक्ष्य ठीक करो, तब यह जानो कि वह कैसा है और कैसे प्राप्त होता है।
लक्ष्य क्या है, प्राप्तव्य क्या है, हर एक क्या पाना चाहता है? यों तो चाहना का कोई अन्त नहीं है। सन्त तुलसी साहब ने लिखा है- “एक दिल लाखों तमन्ना उस पै औ ज्यादा हवस ।” फिर भी समेट कर विचार करने पर मालूम होता है कि हर एक शान्ति चाहता है; क्योंकि शान्ति में सुख होता है। शान्ति सुख की जननी है। शान्ति परमात्मा का ही स्वरूप है, इससे ऊँचा कोई पद नहीं है। श्रीसद्गुरु महाराज के पद्य में- अधुन अशब्द सर्वेश्वर कहिये। शान्ति स्वरूप याहि को लहिये । ऐसा जो शान्तिस्वरूप परमात्मा हैं, उसके - संबंध में केनोपनिषद् में आया है-
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनोमतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥
भावार्थ- जो मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जिस इस (देशकालाविच्छिन्न वस्तु) की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है। पुनः कठोपनिषद् में भी आया है-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥
भावार्थ- जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
सन्त कबीर साहब के वचन में है-
अलख निरंजन लखै न कोई।
निरभै निराकार है सोई॥
सुनि अस्थूल रूप नहिं रेखा ।
द्रिष्टि अद्रिष्टि छिप्यो नहिं पेखा ॥
बरन अबरन कथ्यौ नहिं जाई।
सकल अतीत घट रह्यौ समाई ॥
आदि अन्त ताहि नहिं मधे ।
कथ्यौ न जाई आहि अकथे ।
अपरम्पार उपजै नहिँ बिनसै ।
जुगति न जानियें कथिये कैसे॥
जस कथिये तस होत नहि, जस है तैसा सोइ॥
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होइ॥
गुरु नानक साहब के वचन में है-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ॥
साचे सचिआर विटहु कुरबाणु।।
ना तिसु रूप बरणु नहिं रेखिआ, साचे सबदि नीसाणु ॥१॥
ना तिसु मात पिता सुत बंधप, ना तिसु काम न नारी।
अकुल निरंजन अपर-परंपरु, सगली जोति तुमारी ॥२॥
घट-घट अन्तरी-ब्रह्म लुकाइआ, घटि-घटि जोति सबाई।
बजर कपाट मुकते गुरमती, निरभै ताड़ी लाई ॥३॥
जंत उपाइ कालु सिरिजंता, बसगति जुगति सबाई।
सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि, छूटहि सबदु कमाई ॥४॥
सूचै भाड़ै साचु समावै, बिरले सूचाचारी।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ, नानक सरणि तुमारी ॥५॥
रामचरितमानस में गो० तुलसीदासजी महाराज लिखते हैं-
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
तन बिनु परस नयन बिनु देखा।
ग्रहइ घ्राण बिनु बास असेखा ॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी।
महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
और सूरदासजी महाराज कहते हैं-
अविगत गति जानि ना पड़े।
मन वच कर्म अगाध अगोचर केहि विधि बुधि संचरै ॥
सद्ग्रंथों तथा सन्त-वाणियों में इस तरह के ईश्वर-स्वरूप का बहुत वर्णन है, जो जँचने योग्य है। ऐसा जो परमात्मा है, उसे संत कबीर साहब गगन की ओट में बतलाते हैं। और सन्तों की वाणी में है, जैसे- दादूदयालजी महाराज उसे 'सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा' बताते हैं। गो० तुलसीदासजी महाराज 'प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी' कहते हैं और श्रीगुरु महाराज भी अपने पद्य में कहते हैं, 'पीव नि:शब्द में'। गगन की ओट, सुन्नी सुन सुन्न के पारा, प्रकृति पार और नि:शब्द कहकर एक ही बात कही गई है। दरअसल बात तो यह है कि परमात्मा सर्वव्यापी होने के कारण सब जगह है, परन्तु उसकी पहचान सब जगह नहीं होती।
गो० तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं-
रूप बिसेष नाम बिनु जाने ।
करतल गत न परहिं पहिचाने ॥
श्रीसद्गुरु महाराज के पद्य में भी है-
पिउ व्यापक सर्वत्र परख आवै नहीं।
गुरुमुख घट ही माहिं परख पावै सही ॥
परमात्मा आत्मगम्य हैं- जीवात्मा से जानने योग्य हैं। परन्तु जीवात्मा शरीर-इन्द्रियों की लपेट में पड़ गया है। यह जबतक इस लपेट में रहेगा, तबतक शरीर-इन्द्रिय संबंधी ज्ञान में रहेगा, विषय-ज्ञान में रहेगा, माया-ज्ञान में रहेगा, परमात्मा का ज्ञान नहीं होगा। परमात्मा का ज्ञान करने के लिए अपने को शरीर-इन्द्रियों की लपेट से छुड़ाना पड़ेगा । जो शरीर-इन्द्रियों से अपने को अलग कर लेता है, वह संसार से भी अलग हो जाता है। श्रीसद्गुरु महाराज का वचन है-"शरीर और संसार का बड़ा मेल है। जितने तत्त्वों से शरीर बना है, उतने ही तत्त्वों से संसार भी बना है। शरीर में स्थूल, सूक्ष्म भेद से जितने दर्जे या मण्डल हैं, संसार में भी उतने दर्जे या मण्डल हैं। इसलिए शरीर के जिस मण्डल में जब जो रहता है, संसार के भी उसी मण्डल में तब वह रहता है। शरीर के जिस मण्डल को जब जो छोड़ता है, संसार के भी उस मण्डल से तब वह छूट जाता है। इस तरह जो शरीर के सब मण्डलों से छूट जाता है, वह संसार के भी सभी मण्डलों से छूट जाता है। जो शरीर से छूटा, वह संसार से भी छूट गया।" इसी में सन्त कबीर साहब का गगन की ओट, दादूदयालजी का सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, तुलसीदासजी महाराज का प्रकृति पार और श्रीसद्गुरु महाराजजी का नि:शब्द में होना हो जाता है। इस तरह शरीर-इन्द्रियों से अपने को अलग कर लेने पर पहले आत्म-ज्ञान, फिर परमात्म-ज्ञान होता है। यह ज्ञान बौद्धिक नहीं होता, बल्कि प्रत्यक्ष पहचानवाला ज्ञान होता है। इस ज्ञान में सारे दु:खों का सदा के लिए अन्त हो जाता है और जीते-जी अर्थात् जीवनकाल में ही परम मोक्ष मिल जाता है।
अब इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए सहारा क्या है, तो इसके लिए सन्त कबीर साहब कहते हैं कि सहारा 'दहिने सूर चन्द्रमा बायें तिनके बीच छिपाना है।' प्राप्त कैसे होगा, तो. इसके लिए कहा-तन की कमान पर सुरत का रोदा चढ़ाने से-तब उसपर शब्द का वाण चलेगा। और वह शब्द-वाण सब शरीरों को छेदते हुए शब्दातीत पद, जिसको गगन की ओट आदि कहकर जनाया गया है, से जा लगेगा और तब सुरत भी उसी शब्द के सहारे उस पद में जा मिलेगी। दरअसल यह भजन-भेद की बात है। जिन्हें भजन-भेद मालूम है, वे ही इसे ठीक से समझते हैं। फिर सन्त कबीर साहब कहते हैं कि एक को छेदकर दूसरे शरीर में शब्द का वाण गया, तो इसमें घाव नहीं हुआ अर्थात् तकलीफ नहीं हुई, बल्कि आनन्द हुआ, परमानन्द हुआ। इसलिए भेद जानकर सबको इसका अभ्यास करना चाहिए।
बोलिये श्रीसद्गुरु महाराज की जय !
परमाराध्य सन्त सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के हृदयस्वरूप बाबा श्रीशाही स्वामीजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक २४-४-१९७७ ई०, रविवार को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर-३ में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
- सम्पादक
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मंगल मूरति सतगुरू, मिलवैं सर्वाधार ।
मंगलमय मंगल करण, विनवौं बारम्बार ॥
ज्ञान-उदधि अरु ज्ञान-घन, सतगुरु शंकर रूप ।
नमो-नमो बहु बार हीं, सकल सुपूज्यन भूप ॥
उपस्थित सत्संगप्रेमी महानुभावो, माताओ एवं बहनो !
रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में पढ़िये- कागभुशुण्डिजी पूर्व किसी जन्म में दांभिक और धनी शूद्र थे। उन्होंने एक पवित्र शैव ब्राह्मण से शिव-मंत्र लेकर उन्हें अपना गुरु बनाया था। एक दिन कागभुशुण्डिजी शिव मंदिर में बैठकर शिव-मंत्र का जप कर रहे थे। उसी समय उनके गुरु वहाँ आ गये। कागभुशुण्डिजी ने उठकर उन्हें अभिमानवश प्रणाम नहीं किया। उनके इस अशिष्ट व्यवहार से गुरु तनिक भी क्रुद्ध नहीं हुए- वे पूर्ववत् शांत-स्थिर बने रहे; पर शिवजी को यह गुरु-अपमान सहन नहीं हुआ। उन्होंने आकाशवाणी के द्वारा कागभुशुण्डिजी को अजगर बनकर वृक्ष के एक कोटर में पड़े रहने का शाप दे दिया। इस शाप को सुन कर दयार्द्रहृदय गुरु हाहाकार कर उठे और अपने शिष्य की शाप-मुक्ति के लिये शिवजी से विनती की। शिवजी ने उनकी साधुता से प्रसन्न होकर कहा- "मेरा शाप तो व्यर्थ नहीं जायेगा। इसे एक हजार वर्ष पर्यन्त शाप भोगना पड़ेगा; लेकिन जनमने-मरने से साधारण जीवों को जो दु:ख हुआ करता है, वह इसको नहीं होगा।"
संत ऐसे ही कारुणिक होते हैं। भगवान् श्रीराम ने कहा है- "मोतें अधिक संत करि लेखा।" पहले जानना चाहिये कि संत किसे कहते हैं ? किसी की बड़ाई जानने के बाद ही उसमें श्रद्धा उत्पन्न होती है। संत वे होते हैं, जो दूसरों के दु:ख से दु:खी और दूसरों के सुख से सुखी हो जाते हों ।
पर दुःख दुःख सुख सुख देखे पर।।
संत हृदय नवनीत समाना।
कहा कविन्ह पै कहइ न जाना ॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता।
पर दुःख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥
कवियों ने संत-हृदय की तुलना मक्खन से की है। पर यह उपमा ठीक नहीं बैठती । मक्खन अपनी गर्मी से पिघलता है अर्थात् जब इसे तपाया जाता है, तब वह द्रवित होता है। संतों के हृदय ऐसे नहीं होते। उनके कोमल हृदय अपने दु:ख से नहीं, बल्कि दूसरों को संतप्त देख कर पिघलते हैं- दया से भर जाते हैं।
लोगों के क्लेश देख कर संतों के हृदय में बड़ी पीड़ा होती है। वे उनके कष्ट दूर करने के लिये व्यग्रचित्त रहते हैं। भव-ताप से तप्त लोगों के बीच जा-जाकर खुद कठिनाई और बड़ी-बड़ी मुसीबतें झेलते हुए उन्हें कल्याण का उपदेश करते हैं; उन्हें दु:खों से छुड़ाना चाहते हैं, उन्हें चेताते हैं- लोगो ! देखो, जितने शरीर हैं, उन सबमें तुम्हारा मानव शरीर विशेष है। यह इसलिये नहीं कि तुम्हारा शरीर आकार-प्रकार में बड़ा दर्शनीय है; वरन् इसलिये कि इस शरीर में रहकर तुम वह काम कर सकते हो, जो किसी दूसरे शरीर में नहीं हो सकता। आवागमन से छूटने का उपाय इसी शरीर में रहकर किया जा सकता है। इसीलिये इस शरीर को सुरदुर्लभ कहा गया है ।
बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर-दुर्लभ सब ग्रन्थहि गावा॥
-रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड
आज चन्द्रलोक तथा अन्य ग्रह पर कोई गया, तो मनुष्य ही गया। यह बौद्धिक चमत्कार मनुष्य ने ही दिखाया। किसी पशु-पक्षी या किसी कीड़े-मकोड़े ने नहीं। हम बहुत से देवी-देवताओं के नाम सुनते हैं, सुनते हैं कि अमुक ने ऐसे ऊँचे पद प्राप्त किये थे; वे सब कौन थे? वे लोग हमी जैसे साधारण जीव थे, जो तपस्या करके वैसे हो गये। इतना ही नहीं, ईश्वर की भक्ति करके ईश्वर तक हो गये ।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।
ऐसे अनमोल शरीर पाकर अगर हम भी वही कर्म करें, जो अन्य शरीरधारी करते हैं, तो हमारे शरीर की विशिष्टता क्या रही।
आहार निद्रा भय मैथुनञ्च,
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो,
ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः ।।
(उत्तरगीता, अ० २, श्लोक ४४)
विषय-सुख में लगकर जीवन खपाना उत्तम बात नहीं है। ऐन्द्रिक सुख तो हर शरीर में मिलता है। मनुष्य-शरीर पाकर इससे भी वही सुख लें, तो इसकी श्रेष्ठता क्या, इसकी महिमा क्या! संत कहते हैं, समझो, इसकी सार्थकता किसमें है। संत कबीर कहते हैं- आपन काज सँवारु रे ।। अपना कर्त्तव्य कर्म क्या है, इस शरीर में आकर हमें क्या करना चाहिये- इन बातों पर विचार करो, नहीं तो-
मन पछितैहैं अवसर बीते । - गो. तुलसीदासजी
कुछ काम में कुछ नींद में कुछ भोग में खोया।
आया समय जब मौत का सोचकर रोया ।
- संत कबीर साहब
कर्त्तव्य कर्म नहीं करोगे, अपना काम नहीं करोगे, तो पीछे पछताना पड़ेगा। रोना पड़ेगा।
सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताइ।
कालहि कर्महि ईश्वरहि, मिथ्या दोष लगाइ।
-रामचरितमानस
संत-महात्मा कहते हैं कि अधोगति में जाना न पड़े, पीछे सिर धुन-धुन कर पछताना न पड़े, इसके लिये निज काम करो। जो काम आपके बिना नहीं हो सके, वही आपका निज काम है। खेती, दुकानदारी, फैक्ट्री आदि के काम आपके नहीं रहने पर भी चलते रह सकते हैं। आपने अपनी इमारत पूरी नहीं कर पायी- चल बसे, तो आपके भाई-भतीजे, बेटे व सगे-संबंधी उसे पूरी कर लेंगे; लेकिन आपका अपना काम दूसरा कोई भी पूरा नहीं कर सकता। फर्ज कीजिये, आप बीमार हैं, आपको औषधि खाने की आवश्यकता है, तो क्या दूसरे के औषधि खा लेने से आपकी बीमारी दूर हो जायेगी? स्वास्थ्य-लाभ करना है, तो दवा आपको खानी पड़ेगी, चिकित्सा आपको करवानी होगी। भूख मिटाने के लिए भोजन आपको करना पड़ेगा। दूसरे के खा लेने से भी कहीं किसी की भूख मिटी है? आप अपने कर्त्तव्य के बारे में सोचिये । आपके सिर पर भारी बोझा हो, उसके भार से आप दबे जा रहे हों, हो सकता है कोई दयालु पुरुष आपका बोझा अपने माथे पर लेकर आपका माथा हलका कर सके; आप ऋण-ग्रस्त हैं, कोई आपको ऋण-ग्रस्तता से रुपये देकर अथवा कोई अन्य चीज देकर मुक्त कर सके; पर यह निश्चित रूप से मन में बिठा लीजिये कि आवागमन से आपको कोई दूसरा नहीं छुड़ा सकता, इसके लिये आपको खुद ही प्रयत्नशील होना पड़ेगा।
आवागमन सम दुःख दूजा, है नहीं जग में कोई।
इसके निवारण के लिये, प्रभु-भक्ति करनी चाहिये।
-महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
आवागमन से मुक्त होने के लिए ईश्वर-भक्ति करना ही अपना काम है। शरीर-बंधन में नहीं आते, तो इससे संबंधित दु:ख नहीं उठाना पड़ता। हम बहुत-से बंधनों से जकड़े हुए हैं। पहला बंधन अपना यह शरीर ही है। - पहला बंधन पड़ा देह का।
जिय जब तें हरि तें बिलगान्यो ।
तब तें देह गेह निज जान्यो ।
मायाबस स्वरूप बिसरायो।
तेहि भ्रम तें दारुण दुःख पायो ॥
-विनय-पत्रिका
भौतिक उपलब्धि अल्पकालीन है। बड़ी सम्पत्ति है, सुसभ्य और कुलीन परिवार है, सर्वव्यापिनी ख्याति है; ये सब-के-सब यहीं छूट जाएँगे ।
धनानि भूमौ पशवोहि गोष्ठे नारि गृहाद्वारि सखा श्मशाने ।
देहश्चितायां परलोकमार्गे धर्मानुगोगच्छति जीव एकः ॥
-वैराग्य शतक
सम्पत्ति भूमि के नीचे ही गड़ी रह जाएगी; पशु पशुशाला में बँधे रह जाएँगे; नारी गृहद्वार तक जाएगी, बन्धु-बान्धव श्मशान तक साथ देंगे; देह चिता पर रह जाएगी। साथ वही जाएगा, जो आपने अपने जीवन-क्षेत्र में कर्मों के शुभ-अशुभ बीज बोये हैं। कर्म-संस्कार साथ जाएगा, जो भावी जीवन की भूमिका तैयार करता है। यह वर्तमान जीवन- यह हमारी वर्तमान स्थिति हमारे ही पूर्वकृत कर्मों का परिणाम है। प्रचुर सम्पत्ति और सुंदर शरीर पाकर फूल जाना ठीक नहीं ।
जा शरीर माँहि तू अनेक सुख मानि रह्यो,
ताहि तूँ विचार या में कौन बात भली है।
मेद मज्जा मांस रग-रग में रक्त भर्यो,
पेट हूँ पिटारी-सी में ठौर-ठौर मली है।
हाड़न सूँ भर्यो मुख हाड़न के नैन नाक,
हाथ पाँव सोऊ सब हाड़न की नली है।
'सुंदर' कहत याहि देखि जनि भूलै कोई,
भीतर भंगार भरी ऊपर से कली है।
शरीर ऐसा है, तो संसार कैसा है? यह सोचिए । 'कर्म में लग जाइए। अपने को संसार बंधन से छुड़ा लीजिए । तब हम ऐसे अब हम ऐसे, यही जनम का लाहा। -संत कबीर साहब
सृष्टि के पूर्व जैसे हम परमात्म-स्वरूपी थे, वैसे ही फिर परमात्मा में मिलकर एकमेक हो जाएँ, यही इस जीवन का लाभ है।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ॥
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकई हरि भगति बिहाई॥
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि यदि मोक्ष-सुख चाहते हो, तो हरि-भक्ति करो। भक्ति के सिवा दूसरा उपाय नहीं है। कुछ ऐसा करो, जिससे प्रभु रीझ जाएँ—
अँखिया लागि रहन दो साधो, हिरदे नाम सम्हारा ।
रीझै बूझै साहिब तेरा, कौन पड़ा है द्वारा ॥
जम जालिम के सब डर मिटिगे, जा दिन दृष्टि निहारा।
-संत कबीर साहब
प्रभु तुम्हारे काम से रीझ जाएँगे, तो यम-जालिम के सब भय दूर हो जायेंगे। वह कौन-सा काम है, जिससे प्रभु प्रसन्न हो जाएँ? कोई तब प्रसन्न होता है, जब उसे अपने मनोनुकूल पदार्थ मिल जाता है। प्रिय की प्राप्ति में प्रसन्नता आती है। प्रभु क्या चाहते हैं? प्रभु हम-आपको चाहते हैं और कुछ नहीं। वे तो पूर्णकाम हैं। हम अपने को उन पर न्योछावार कर दें, यही उनकी प्रसन्नता का कारण होगा । ठाकुरबाड़ी में मूर्ति के सामने बैठकर हम उसकी पूजा करते हैं, उसके ऊपर फूल चढ़ाते हैं। फूल तो एक माध्यम है, जिसके द्वारा हम अपने
मन को मूर्ति पर चढ़ाते हैं। जिस दिन फूल तो चढ़ाते हैं, पर उसके साथ मनोयोग नहीं रहता- मन नहीं चढ़ता, तो कहते हैं कि आज ठीक से पूजा नहीं हुई। उस दिन मन की प्रसन्नता भी जाती रहती है- संतुष्टि भी नहीं मिलती है।
भगति सुतंत्र सकल गुन खानी।
बिनु सत्संग न पावहिं प्रानी ॥
भक्ति अपने तईं करने की है- वह नौकर-नौकरानियों से नहीं करवायी जा सकती। हमारी इन्द्रियाँ हमारी नौकरानियाँ हैं, इनसे प्रभु की भक्ति नहीं हो सकती। अपनी आत्मा को परमात्मा पर न्योछावर कर दीजिए, यही ऊँचे दर्जे की भक्ति है ।
मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति 'सुंदर' कहै।
प्रश्न उठता है कि वे प्रभु कहाँ हैं? उनकी पहचान हुए बिना उन पर न्योछावर कैसे हुआ जा सकता है ? संत कबीर साहब कहते हैं-
संपुटि माँहिँ समाइया, सो साहिब नहिं होइ।
सकल मांड में रमि रह्या, साहिब कहिये सोइ ।।
रहै निराला मांड थैं, सकल मांड ता माँहिँ।
'कबीर' सेवै तास कूँ, दूजा कोई नाहिं ॥
प्रभु के दर्शन के लिए लोग तीर्थों की खाक छानते हैं, मूर्तियों के दर्शन करते हैं। मूर्तियों के दर्शन करके विश्वास नहीं होता कि प्रभु के दर्शन हुए। इसलिए उनसे प्रत्यक्ष दर्शन देने की प्रार्थना करते हैं। वे प्रभु सब के बाहर हैं और सबके भीतर भी।
प्रकृति पार प्रभु उर सब वासी।
ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥
परमात्मा बाहर में और अपने अंदर भी हैं। प्रत्यक्षता अपने अंदर होगी। उनकी पहचान आत्मदृष्टि से होगी, चर्मदृष्टि से नहीं-"चाम चश्म सों नजरि न आवै, खोजु रुह के नैना ।"
जीवात्मा पर माया की तह-दर-तह कई पट्टियाँ पड़ गयी हैं। अंदर चलने से वे पट्टियाँ उतरती जाएँगी। सारी पट्टियों के उतर जाने पर आत्मदृष्टि प्राप्त होगी, जिससे प्रभु के दर्शन किये जा सकेंगे। किसी की आँखों पर कई पट्टियाँ बंधी हों, तो वह एक-एक करके उसे उतारेगा। धीरे-धीरे उसके सामने का अंधकार पतला होता जाएगा। पूरी पट्टियों को उतार फेंकने पर अंधकार उसके सामने कुछ भी नहीं रहेगा- पूरे प्रकाश में ही वह किसी चीज को देख सकेगा। हमारे ऊपर अंधकार, प्रकाश और शब्द की त्रिविध पट्टियाँ हैं। इन्हें उतार देने पर ही प्रभु का साक्षात्कार होगा। साधना करके नि:शब्द में ही प्रभु पर अपने को आत्म-निवेदित कर सकेंगे।
अैसी सेवकु सेवा करै ।
जिसका जीउ तिसु आगै धरै ॥
-गुरु नानक साहब
अपने अंदर चलने के लिए सीखना पड़ता है। संसार का साधारण ज्ञान भी गुरु के बिना लोग नहीं सीख पाते हैं ।
सहजो कारज जगत के, गुरु बिन पूरे नाँहि ।
हरि तो गुरु बिन क्यों मिलैं, समझ देख मन माहिं ।।
हम देखते हैं, जो कोई नौकरी करते हैं, उन्हें भी पहले ट्रेनिंग लेनी पड़ती है। ट्रेनिंग लिये बिना उस काम के योग्य नहीं बनते हैं। सिखानेवाले से सीखिए । महायोगी गोरखनाथ ने बड़ा अच्छा कहा है-
सप्त धातु का काया प्यंजरा,
ता माहिं जुगति बिन सूवा ।
सत्गुरु मिलै त उबरै बाबू,
नहिं तौ परलै हूवा ॥
सद्गुरु की युक्ति जाने बिना जीव शरीर में सृष्टि के आदि काल से ही फंसा हुआ है। उबरने के लिए गुरु-युक्ति से साधन कीजिए।
बोलिये श्रीसद्गुरु महाराज की जय!